Facebook SDK

  अंग्रेजों का पंजाब विजय (British Conquest of Punjab)


  भूमिका

                भारत पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का नियंत्रण धीरे-धीरे बढ़ता गया, और 18वीं सदी के अंत तथा 19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश साम्राज्य ने एक-एक करके भारतीय राज्यों को अपने अधीन करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रक्रिया में बंगाल, मैसूर, मराठा क्षेत्र, अवध, हैदराबाद आदि राज्यों के बाद अंग्रेजों की दृष्टि उत्तर-पश्चिम भारत में स्थित शक्तिशाली सिख साम्राज्य यानी पंजाब पर पड़ी। पंजाब न केवल सामरिक रूप से महत्वपूर्ण था, बल्कि उसकी आर्थिक, भौगोलिक तथा सैन्य शक्ति भी ब्रिटिश हितों के लिए चुनौतीपूर्ण थी। अतः अंग्रेजों ने धीरे-धीरे कूटनीति, आंतरिक संघर्षों का लाभ उठाते हुए तथा प्रत्यक्ष युद्धों के माध्यम से पंजाब को 1849 में ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।


पंजाब विजय की पृष्ठभूमि

  1. सिख साम्राज्य की स्थापना

    पंजाब क्षेत्र में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अफगानों के पतन के बाद सिख शक्ति का उदय हुआ। महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) ने जो कि सुकरचकिया मिस्ल के थे उन्होंने सिखों को संगठित कर एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की, जिसे ‘सिख साम्राज्य’ कहा गया। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सतलज से लेकर सिंधु तथा कश्मीर से लेकर मलवा तक राज्य विस्तार किया।

    रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से संधि (1809 की अमृतसर संधि) के माध्यम से सतलज नदी को सीमारेखा मानते हुए संबंध बनाए रखे।

  2. अंग्रेजों की पश्चिमी नीति और रणनीति

    अंग्रेजों की रणनीतिक दृष्टि में पंजाब का विशेष महत्व था:

    यह उत्तर-पश्चिम दिशा से संभावित अफगान और रूसी आक्रमणों के लिए ढाल का काम करता।

    पंजाब उपजाऊ, राजस्व देने वाला, और सैन्य दृष्टि से सक्षम क्षेत्र था।

    सिंध, बलूचिस्तान और अफगानिस्तान में अंग्रेज पहले ही अपनी पकड़ बना चुके थे, पंजाब में सत्ता स्थापित करना साम्राज्य विस्तार की दिशा में अगला स्वाभाविक कदम था।


  रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब की स्थिति

  1. उत्तराधिकार संघर्ष

    महाराजा रणजीत सिंह की 1839 में मृत्यु के बाद सिख साम्राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। उनके उत्तराधिकारियों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष चला:

    खड़क सिंह, नौ निहाल सिंह, चंद्रकौर, शेर सिंह, दलीप सिंह आदि के शासन अल्पकालीन और अशांत रहे।

    दरबारी गुटबाज़ी, सैन्य हस्तक्षेप और जनता का असंतोष लगातार बढ़ता गया।

  2. सिख सेना - खालसा की स्वायत्तता

    रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख सेना (खालसा) एक स्वायत्त शक्ति बन गई। सेना को अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता मिल गई और वो कभी-कभी सरकार के विरुद्ध भी कार्य करती थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि रणजीत सिंह के समय में खालसा का कठोर अनुशासन टूट चुका था।


  अंग्रेजों और सिखों के बीच टकराव

  1. अंग्रेजों का हस्तक्षेप

    ब्रिटिश सरकार ने पंजाब की अस्थिरता का लाभ उठाने के लिए धीरे-धीरे हस्तक्षेप करना शुरू किया:

    अंग्रेजों ने सतलज पार के क्षेत्रों में किलेबंदी शुरू की।

    उन्होंने सिख दरबार की अंतर्कलह को उकसाया और असंतुष्ट दरबारी गुटों से गुप्त समझौते किए।

  2. टकराव की पृष्ठभूमि

    1845 तक सिखों को यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज अब पंजाब की ओर बढ़ना चाहते हैं। वहीं अंग्रेजों ने सिखों को पहले हमला करने पर मजबूर करने की योजना बनाई ताकि वे आक्रामक के रूप में प्रस्तुत न हों।


  प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-46)

  1. युद्ध के कारण

    सिख दरबार में निरंतर अशांति।

    खालसा सेना की स्वायत्तता और उग्रवादिता।

    ब्रिटिश साम्राज्य की विस्तारवादी नीति।

    ब्रिटिश सैनिकों की पंजाब सीमा पर बढ़ती गतिविधियाँ।

  2. प्रमुख युद्ध

    मुडलकी (Mudki) का युद्ध – 18 दिसंबर 1845

    फिरोजशाह (Ferozeshah) का युद्ध – 21-22 दिसंबर 1845

    अलीवाल का युद्ध – 28 जनवरी 1846

    सोब्रांव का युद्ध – 10 फरवरी 1846

    इन युद्धों में अंग्रेजों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा, किंतु अंततः वे विजयी हुए।

  3. परिणाम – लाहौर संधि (1846)

    सतलज नदी के पार के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिए गए।

    अंग्रेजों को 1.5 करोड़ रुपये क्षतिपूर्ति मिली।

    सिखों के लिए सीमित सेना रखने का नियम बना।

    अंग्रेजों ने लाहौर में एक रेजीडेंट नियुक्त किया।

    महारानी जिंदन कौर को पद से हटाया गया।

    दलीप सिंह को ब्रिटिश संरक्षण में ले लिया गया।


  ब्रिटिश हस्तक्षेप और दखल (1846-1849)

  1. सहायक शासन

    ब्रिटिश सरकार ने लाहौर में अंग्रेज रेजीडेंट नियुक्त किया – हेनरी लॉरेंस, जिनकी देखरेख में सिख प्रशासन चलने लगा। यह काल एक तरह का छद्म शासन था।

  2. मुल्तान विद्रोह (1848)

    मुल्तान के दीवान मूलराज को हटाने का आदेश दिया गया था।

    इस आदेश का विरोध करते हुए उसने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और दो ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या कर दी।

  3. सिखों का फिर से संगठित होना

    इस विद्रोह ने पुनः खालसा सेना को संगठित कर दिया और पूरे पंजाब में ब्रिटिश विरोधी आंदोलन फैल गया। इसे ब्रिटिशों ने दूसरे सिख युद्ध की शुरुआत मानी।


british conquest of punjab,अंग्रेजों का पंजाब विजय,angrejo ki punjab vijay,प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध,द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध,punjab vijay, रणजीत सिंह

  द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49)

  1. प्रमुख युद्ध

    रामनगर का युद्ध – 22 नवंबर 1848

    चिलियनवाला का युद्ध – 13 जनवरी 1849

    गुजरात का युद्ध – 21 फरवरी 1849

    यह युद्ध पहले से भी अधिक भीषण थे, पर अंग्रेज अब अधिक सुदृढ़ और तैयार थे।

  2. परिणाम

    सिख सेना को निर्णायक रूप से हराया गया।

    21 मार्च 1849 को पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

    दलीप सिंह को पदच्युत कर दिया गया और इंग्लैंड भेज दिया गया।

    महारानी जिंदन कौर को गिरफ्तार किया गया।


  पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय

  1. आधिकारिक घोषणा

    गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने 1849 में घोषणा की कि अब पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा है।

  2. प्रशासनिक व्यवस्था

    पंजाब को एक ब्रिटिश प्रांत बना दिया गया।

    जॉन लॉरेंस को पंजाब का प्रमुख प्रशासक नियुक्त किया गया।

    पुलिस, शिक्षा, सिंचाई और भू-राजस्व प्रणाली का पुनर्गठन किया गया।


  अंग्रेजों के लिए पंजाब का महत्व

  1. सैन्य दृष्टिकोण

    पंजाब से अंग्रेजों को अत्यंत शक्तिशाली सिख सैनिक मिले।

    1857 की क्रांति में सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया, जो उनके लिए निर्णायक रहा।

  2. रणनीतिक दृष्टिकोण

    पंजाब से अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत की सुरक्षा की जा सकती थी।

    रशियन आक्रमण के विरुद्ध एक ढाल बन गया।

  3. आर्थिक योगदान

    पंजाब में कृषि, व्यापार, और सिंचाई के विकास ने ब्रिटिश को भारी राजस्व दिलाया।


  पंजाब विजय के प्रभाव

  1. सिखों का पतन

    सिखों की राजनीतिक सत्ता का अंत हो गया। खालसा की स्वतंत्रता समाप्त हो गई।

  2. ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार

    पंजाब के विलय से ब्रिटिश साम्राज्य का पूरा उत्तर-पश्चिम भारत उनके अधीन आ गया।

  3. भारत में राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि

    पंजाब विजय और ब्रिटिश नीति ने धीरे-धीरे भारतीय राष्ट्रवाद के बीज बोए, यद्यपि तत्कालीन दौर में सिख शक्ति काफी कमजोर हो चुकी थी।


  निष्कर्ष

                पंजाब की विजय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सबसे निर्णायक उपलब्धियों में से एक थी। यह विजय न केवल सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी, बल्कि इससे ब्रिटिशों को एक शक्तिशाली सैन्य संसाधन भी प्राप्त हुआ। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में उत्पन्न अस्थिरता, सिख सेना की स्वायत्तता, और अंग्रेजों की कूटनीति ने इस विजय को संभव बनाया। पंजाब का साम्राज्य में विलय न केवल ब्रिटिश शक्ति की चरम परिणति थी, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में भी एक नया मोड़ था, जहाँ से सिख समाज, जो कभी स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माता थे, अब ब्रिटिश शासन में सहयोगी बन गए।


british conquest of punjab,अंग्रेजों का पंजाब विजय,angrejo ki punjab vijay,प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध,द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध,punjab vijay, रणजीत सिंह,british conquest of punjab,अंग्रेजों का पंजाब विजय,angrejo ki punjab vijay,प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध,द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध,punjab vijay, रणजीत सिंह,british conquest of punjab,अंग्रेजों का पंजाब विजय,angrejo ki punjab vijay,प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध,द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध,punjab vijay, रणजीत सिंह

Post a Comment

Previous Post Next Post