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  जैन धर्म का परिचय


  • उत्पत्ति: जैन धर्म की उत्पत्ति वैदिक काल के दौरान छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई। यह एक श्रमण परंपरा है, जो वैदिक धर्म के कर्मकांडों और यज्ञों के विरोध में विकसित हुई।
  • संस्थापक: जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को इसका प्रमुख प्रचारक माना जाता है। हालाँकि, जैन परंपरा के अनुसार, यह धर्म अनादिकाल से चला आ रहा है, और ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर) इसके संस्थापक थे।
  • ऐतिहासिक संदर्भ: जैन धर्म का उदय मगध क्षेत्र (आधुनिक बिहार) में हुआ, जहाँ बौद्ध धर्म के साथ-साथ यह श्रमण आंदोलन का हिस्सा था।


  जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत 


जैन धर्म का दर्शन अहिंसा, आत्म-संयम, और आत्मा की मुक्ति पर केंद्रित है। इसके प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं:

  1. पंच महाव्रत (पाँच महान व्रत):

  • अहिंसा: किसी भी जीव को शारीरिक या मानसिक रूप से हानि न पहुँचाना। यह जैन धर्म का मूल सिद्धांत है।
  • सत्य: हमेशा सच बोलना और सत्य का पालन करना।
  • अस्तेय: चोरी न करना, अर्थात् बिना अनुमति किसी की वस्तु न लेना।
  • ब्रह्मचर्य: कामवासना पर नियंत्रण और संयम।
  • अपरिग्रह: भौतिक संपत्ति और सांसारिक लगाव से मुक्ति।
  • गृहस्थों के लिए: साधुओं के लिए ये व्रत कठोर हैं, जबकि गृहस्थों के लिए इन्हें अनुशीलन (अणुव्रत) के रूप में हल्का किया गया है।

  2. त्रिरत्न (तीन रत्न):

  • सम्यक दर्शन: सही विश्वास, अर्थात् जैन सिद्धांतों में श्रद्धा।
  • सम्यक ज्ञान: सही ज्ञान, जो आत्मा और विश्व की सच्चाई को समझने से आता है।
  • सम्यक चरित्र: सही आचरण, जो पंच महाव्रतों का पालन करके प्राप्त होता है।

  3. कर्म सिद्धांत:

  • जैन धर्म में कर्म एक भौतिक पदार्थ है, जो आत्मा से चिपकता है और उसे बंधन में रखता है।
  • कर्म दो प्रकार के होते हैं: पुण्य कर्म (अच्छे कार्यों से) और पाप कर्म (बुरे कार्यों से)।
  • मुक्ति का मार्ग: कर्मों से मुक्ति (निर्जरा) और नए कर्मों का बंधन रोकना (संवर)।

  4. जीव और अजीव:

  • जैन दर्शन विश्व को दो भागों में बाँटता है: जीव (चेतन, आत्मा) और अजीव (अचेतन, जैसे पदार्थ, समय, और स्थान)।
  • सभी जीवों में आत्मा होती है, और अहिंसा का सिद्धांत इन सभी जीवों के प्रति लागू होता है।

  5. स्यादवाद (अनेकांतवाद):

  • यह जैन दर्शन का एक अनूठा सिद्धांत है, जो कहता है कि सत्य बहुआयामी होता है और इसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जाना चाहिए।
  • सप्तभंगी नय: सत्य को सात दृष्टिकोणों से समझने की विधि।

  6. अन्य सिद्धांत:

  • अनेकांतवाद: वास्तविकता की बहुलता को स्वीकार करना।
  • नयवाद: किसी वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना।


 जैन धर्म के तीर्थंकर


    जैन परंपरा के अनुसार, 24 तीर्थंकर हुए हैं, जो आत्मा की मुक्ति के मार्गदर्शक हैं।

    प्रथम तीर्थंकर: ऋषभदेव (आदिनाथ), जिन्हें हड़प्पा सभ्यता की कुछ मुहरों से जोड़ा जाता है (यद्यपि विवादास्पद)।
    24वें तीर्थंकर: महावीर स्वामी (599-527 ईसा पूर्व)।
  • जीवन: जन्म वैशाली (बिहार) में क्षत्रिय कुल में, 30 वर्ष की आयु में संन्यास, 12 वर्ष की तपस्या के बाद कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति, और 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में निर्वाण।
  • योगदान: जैन धर्म का संगठन और प्रचार, सामाजिक सुधार, और अहिंसा का प्रचार।

  जैन धर्म के संप्रदाय

    जैन धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय हैं:

  1. दिगंबर:

  • मान्यता: साधु पूर्ण नग्नता का पालन करते हैं, क्योंकि अपरिग्रह में वस्त्र भी शामिल हैं।
  • प्रमुख आचार्य: भद्रबाहु (चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु)।
  • दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित।

  2. श्वेतांबर:

  • मान्यता: साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
  • प्रमुख आचार्य: स्थूलभद्र।
  • उत्तर भारत में अधिक प्रचलित।

  विवाद: दोनों संप्रदायों में मूर्तिपूजा, ग्रंथ, और कुछ प्रथाओं को लेकर मतभेद हैं।




  जैन धर्म का ऐतिहासिक विकास

  1. प्रारंभिक विकास:

  • महावीर के समय में जैन धर्म मगध, कोशल, और वैशाली में लोकप्रिय हुआ।
  • राजाओं का संरक्षण: बिम्बिसार, अजातशत्रु, और चंद्रगुप्त मौर्य (जैन परंपरा के अनुसार)।

  2. मौर्य काल:

  • चंद्रगुप्त मौर्य ने भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रसार किया।
  • भद्रबाहु और स्थूलभद्र के नेतृत्व में संप्रदायों का विभाजन।

  3. मौर्योत्तर काल:

  • कुषाण और सातवाहन राजवंशों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया।
  • मथुरा और उज्जैन जैन धर्म के प्रमुख केंद्र बने।

  4. गुप्त काल और बाद में:

  • गुप्त काल में जैन धर्म को संरक्षण मिला, लेकिन हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म की तुलना में इसका प्रभाव कम हुआ।
  • दक्षिण में चालुक्य, राष्ट्रकूट, और गंगा वंशों ने जैन मठों और मंदिरों का निर्माण करवाया (जैसे, श्रवणबेलगोला का गोम्मटेश्वर)।

  5. मध्यकाल में पतन:

  • हिंदू भक्ति आंदोलन और इस्लामी आक्रमणों के कारण जैन धर्म का प्रभाव कम हुआ।
  • फिर भी, गुजरात और राजस्थान में जैन समुदाय व्यापार और वाणिज्य में प्रभावशाली रहा।


  जैन धर्म का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव

  1. सामाजिक प्रभाव:

  • वर्ण व्यवस्था का विरोध: जैन धर्म ने वैदिक वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का विरोध किया।
  • महिलाओं की स्थिति: जैन धर्म ने महिलाओं को संन्यास और शिक्षा का अवसर दिया, जो उस समय प्रगतिशील था।
  • अहिंसा: समाज में अहिंसा और शाकाहार को बढ़ावा दिया।

  2. आर्थिक प्रभाव:

  • जैन समुदाय व्यापार और वाणिज्य में सक्रिय रहा, विशेष रूप से मौर्योत्तर और मध्यकाल में।
  • जैन व्यापारियों ने बैंकिंग और व्यापारिक नेटवर्क स्थापित किए।

  3. शिक्षा और साहित्य:

  • जैन आचार्यों ने प्राकृत और संस्कृत में ग्रंथ लिखे, जैसे आचारांग सूत्र, सूत्रकृतांग, और कल्पसूत्र।
  • तमिल में शिल्पादिकारम और जीवक चिंतामणि जैसे ग्रंथ जैन प्रभाव को दर्शाते हैं।


जैन कला और स्थापत्य

  • मंदिर: दिलवाड़ा मंदिर (माउंट आबू), रणकपुर मंदिर, और पालिताना मंदिर जैन स्थापत्य की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं।
  • मूर्तियाँ: श्रवणबेलगोला का गोम्मटेश्वर (बाहुबली की मूर्ति), खजुराहो के जैन मंदिर।
  • गुफाएँ: उदयगिरि और खंडगिरि (उड़ीसा) में जैन गुफाएँ।
  • विशेषताएँ: जटिल नक्काशी, सममित डिज़ाइन, और तीर्थंकरों की मूर्तियाँ

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