मधुबनी चित्रकला :-
परंपरागत रूप से मधुबनी शहर ( बिहार ) के आसपास ग्रामीण महिलाओं द्वारा की जाने वाली इस चित्रकारी को मिथिला चित्रकारी भी कहा जाता है । इन चित्रकलाओं की विषय - वस्तु एक समान है और सामान्य रूप से हिंदुओं के धार्मिक रूपांकनों , जैसे कृष्ण , राम , दुर्गा , लक्ष्मी और शिव आदि से प्रेरित है । इन चित्रकलाओं के चित्र सांकेतिक हैं , उदाहरणार्थ मछली सौभाग्य और जनन क्षमता की ज्ञातक है । ये चित्रकला जन्म , विवाह और त्यौहारों जैसे शुभ अवसरों को चित्रित करते हुए निर्मित की जाती है । इस चित्रकारी में किसी भी प्रकार के अंतराल को पूरा करने के लिए पुष्पों , वृक्षों , जन्तुओं इत्यादि का प्रयोग किया जाता है । पारंपरिक रूप से इन्हें गाय के गोबर और मिट्टी से लेप कर निर्मित आधार पर चावल की लेई और वनस्पतियों के रंगों से निर्मित किया जाता था । समय के साथ , यह आधार परिवर्तित होकर हस्तनिर्मित कागज , वस्त्र और कैनवास हो गया । कोई छाया प्रभाव न होने के कारण यह चित्रकला द्विआयामी होती हैं । दोहरी पंक्ति का किनारा , गहरे रंगों का प्रयोग , अलंकृत पुष्पित पैटर्न और अतिरंजित मुख मुद्राएं इस चित्रकला की सामान्य विशेषताएं हैं । मधुबनी चित्रकला का मूल रामायण काल के दौरान माना जाता है , जब मिथिला के राजा ने सीता और राम के विवाह के अवसर पर अपने प्रजाजनों को अपनी दीवारों और आंगनों को चित्रित करने के लिए कहा । अधिकतर महिलाओं द्वारा ही मधुबनी चित्रकला के कौशल को पीढ़ी - दर - पीढ़ी हस्तांतरित किया गया है । 1970 में जब भारत के राष्ट्रपति ने जगदंबा देवी को पुरस्कार से सम्मानित किया तब इस कला को पहचान प्राप्त हुई । उसके अतिरिक्त , इससे संबंधित चित्रकारों में बउआ देवी , भारती दयाल , गंगा देवी , महासुंदरी देवी और सीता देवी सम्मिलित हैं । चूंकि यह कला एक भू - भाग तक ही सीमित रही है , इसलिए इसे जी.आई. ( भौगोलिक संकेत ) की प्रतिष्ठा भी प्रदान की गयी है ।
पट्टचित्र चित्रकला :-
ओड़िसा की पारम्परिक चित्रकारी , जिसे पट्टचित्र कहा जाता है का नामकरण संस्कृत शब्द पट्ट अर्थात् कैनवास / कपड़ा और चित्र से मिलकर हुआ है । यह चित्रकला शास्त्रीय और लोक तत्वों के मिश्रण को प्रदर्शित करती हैं , जिसमें लोक तत्वों के प्रति अधिक झुकाव है।
इस चित्रकारी का आधार उपचारित वस्त्र होता था । इसमें प्रयोग किए गए रंग जलाए हुए नारियल के खोल , हिंगुला , रामाराजा और दीप कजल ( काजल ) इत्यादि प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त होते थे । पॅसिल और चारकोल का कोई प्रयोग नहीं किया जाता था बल्कि इसके स्थान पर लाल और काले रंगों बाह्य रेखा निर्मित करने के लिए ब्रश का प्रयोग किया जाता था और उसके बाद रंग भरे जाते थे । पृष्ठभूमि को पत्तियों और पुष्पों से अलंकृत किया जाता था और चित्रकारी में महीन काम से निर्मित फ्रेम ( Frame ) होता था । समापक रेखाएं खींचने के बाद , चमकीली सज्जा प्रदान करने के लिए चित्रकारी पर लाख का लेप किया जाता था । इस चित्रकला की विषय - वस्तुएं जगन्नाथ और वैष्णव मत और कभी - कभी शक्ति और शिव मत से भी प्रेरित होती हैं । ओडिशा का रघुराजपुर इस कला रूप के लिए जाना जाता है । पट्टचत्र चित्रकला ऐसी छवियों को प्रदर्शित करता है जो राज्य के पुराने भित्तिचित्रों के समान होती हैं , जो प्रमुख रूप से पुरी और कोणार्क में पाई जाती हैं । खजूर की पत्तियों पर निर्मित पट्टचित्र को तालपट्टचित्र के नाम से जाना जाता है ।
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