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        प्राचीन और मध्यकालीन भारत में सिक्के


               परिचय :-

  सिक्का ' ( Coin ) शब्द लैटिन शब्द ' Cuneus ' से लिया गया है और यह माना जाता है कि सिक्कों का पहला अभिलेखित उपयोग चीन और यूनान में लगभग 700 ईसा पूर्व और भारत में छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मिलता है । सिक्कों और पदकों का अध्ययन सिक्काशास्त्रीय कला ( Numismatic art ) भी कहलाता है ।

            आहत मुद्राएं :-

  प्रारंभिक सिक्के ढाले गए सिक्के थे और केवल एक ओर ठप्पांकित थे । इनमें एक ही ओर एक से पांच चिह्न या प्रतीक अंकित होते थे और इसलिए इन्हें ' आहत मुद्राएं ' कहा जाता था । पाणिनी की अष्टध्यायी में उद्धृत है कि आहत मुद्राओं में , धातु के टुकड़ों पर प्रतीक अंकित किए जाते थे । प्रत्येक इकाई को ' रत्ती ' कहा जाता था जिसका वजन 0.11 ग्राम होता था । इस सिक्के का पहला साक्ष्य छठी शताब्दी ईसा पूर्व से द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के बीच मिलता है । इसके निम्नलिखित दो वर्गीकरण उपलब्ध हैं : 

   1.विभिन्न महाजनपदों द्वारा जारी की गई आहत मुद्राएं : पुराण , कार्षापण या पण नामक पहली भारतीय आहत मुद्राएं 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में गंगा नदी के तटीय इलाकों में स्थित विभिन्न जनपदों और महाजनपदों द्वारा ढाली गई थीं । 

    इन सिक्कों का अनियमित आकार एवं मानक वजन था और ये विभिन्न चिह्नों के साथ चांदी से बनाए जाते थे - जैसे सौराष्ट्र में कूबड़दार सांड , दक्षिण पंचाल में स्वास्तिक और मगध में सामान्यत : पांच प्रतीक होते थे । मगध की आहत मुद्राएं दक्षिण एशिया में सर्वाधिक प्रचलन वाली मुद्राएं थीं । 

    मनुस्मृति और बौद्ध जातक कहानियों में इनका उल्लेख किया गया है और उत्तर की तुलना में दक्षिण में तीन शताब्दियों ( 600 ईसा पूर्व -300 ईस्वी ) तक इनका प्रचलन रहा ।

     2. मौर्य काल ( 322-185 ईसा पूर्व ) के दौरान आहत मुद्राएं : प्रथम मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री चाणक्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में रुप्यरूप ( चांदी ) , सुवर्णरूप ( स्वर्ण ) , ताम्ररुप ( तांबा ) और सीसरुप ( सीसा ) जैसी आहत मुद्राओं की ढलाई का उल्लेख किया है । उपयोग किए गए विभिन्न प्रतीकों में सूर्य और छह भुजाओं वाला पहिया सर्वाधिक प्रचलित था । जिस सिक्के में औसतन 50-54 ग्रेन चांदी होती थी और वजन में 32 रत्ती होता था , उसे कार्षापण कहा जाता था ।

              हिंद - यूनानी सिक्के :-

    हिंद - यूनानियों का शासनकाल 180 ईसा पूर्व से लेकर लगभग 10 ईस्वी तक था । हिंद - यूनानियों के सिक्कों पर शासक के वक्ष के ऊपर सिर दर्शाने की प्रथा प्रचलित की । उनके भारतीय सिक्कों पर दो भाषाओं - एक ओर यूनानी में और दूसरी ओर खरोष्ठी में - मुद्रालेख मिलता है । हिंद - यूनानी सिक्कों पर सामान्यतः दर्शाए गए यूनानी देवी - देवता जीउस , हरक्यूलिस , अपोलो और पलास एथेन थे । प्रारंभिक श्रृंखला में यूनानी देवी देवताओं की आकृतियों का उपयोग किया गया था लेकिन बाद के सिक्कों में भारतीय देवी - देवताओं की भी आकृतियां पाई गई ।

           ये सिक्के महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें जारी करने वाले राजा की आकृति , जारी करने के वर्ष और कभी - कभी शासनकर्ता राजा के संबंध में विस्तृत जानकारी भी होती थी । सिक्के मुख्य रूप से चांदी , तांबा , निकल और सीसा से बनाए जाते थे । भारत में यूनानी राजाओं के सिक्के द्विभाषी थे , अर्थात् सामने की ओर यूनानी और पीछे की ओर पाली भाषा में ( खरोष्ठी लिपि में ) उत्कीर्णित होते थे । 

    बाद में , हिंद - यूनानी कुषाण राजाओं ने सिक्कों पर आकृति - चित्र उत्कीर्ण करने की यूनानी प्रथा प्रचलित की । कुषाण सिक्के ओर राजा के शिरस्त्रण युक्त आवक्ष - चित्र और दूसरी ओर राजा के ईष्ट देवी - देवता की आकृति से सुसज्जित थे । कनिष्क द्वारा जारी किए गए सिक्कों में केवल यूनानी वर्गों का ही उपयोग किया गया था । 

        कुषाण साम्राज्य के व्यापक मुद्रांकन ने बड़ी संख्या में जनजातियों , राजवंशों और राज्यों को भी प्रभावित किया , जिन्होंने एक अपने स्व्यं के सिक्के जारी करना आरंभ किया ।

प्राचीन और मध्यकालीन भारत में सिक्के

             सातवाहनों के सिक्के :-

   सातवाहनों का शासनकाल 232 ईसा पूर्व के बाद आरंभ हुआ और 227 ईसवी तक चला । सातवाहन राजाओं ने अपने सिक्कों के लिए सीसे ( lead ) का उपयोग भी किया । उनके अधिकांश सिक्के सीसे के थे । चांदी के सिक्का अति दुर्लभ थे । सीसे के अतिरिक्त , उन्होंने " पोटिन " नामक चांदी और तांबे की मिश्र धातु का उपयोग किया । तांबे के कई सिक्के भी उपलब्ध थे । यद्यपि सातवाहन सिक्कों में कोई सौंदर्य या कलात्मक गुण नहीं हैं , तथापि वे सातवहन वंश के इतिहास के बहुमूल्य स्रोत हैं । अधिकांश सातवाहन सिक्कों पर एक ओर हाथी , घोड़े , शेर या चैत्य की आकृति है तथा दूसरी ओर तथाकथित उज्जैन प्रतीक - दो पार - गमन करने वाली रेखाओ के अंत में चार चक्रों के साथ क्रॉस - दर्शाया गया है । प्रयुक्त बोली प्राकृत थी ।

            कौड़ी :-

   सिक्कों के अतिरिक्त प्रारंभिक भारतीय बाजार में विनिमय का एक और प्रमुख माध्यम कौड़ियां थी । छोटे पैमाने पर आर्थिक लेनदेन के लिए आम जनता द्वारा बड़ी संख्या में कौड़ियों का उपयोग किया जाता था । ऐसा कहा जाता है कि सिक्कों की भांति बाजार में कौड़ियों का भी निश्चित मूल्य होता था ।


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