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               राजनीति में आत्मचिंतन का समय

भारत के वैभव का अनुष्ठान राजनीति है । राष्ट्रजीवन से जुड़े आदर्शों के बिना लोकतांत्रिक राजनीति संभव नहीं । संविधान निर्माताओं ने पूरी राजव्यवस्था का चित्र बनाया है । संविधान में अनेक संस्थाएं हैं । उनका सम्मान सबका कर्तव्य है । संसदीय जनतंत्र में राजनीतिक विचारधाराएं दलों के माध्यम से व्यक्त होती हैं । चुनाव में किसी दल या समूह को बहुमत मिलता है । उसे पांच वर्ष के लिए काम करने का संवैधानिक अधिकार है । विपक्ष सरकार की आलोचना करता है , लेकिन कुछ समय से सरकारों के शासन करने के अधिकार को चुनौती दी जा रही है । विधायिका द्वारा पारित कानूनों को भी खारिज किया जा रहा है । यह स्थिति संवैधानिक जनतंत्र के लिए भयावह है । नीति आयोग की हालिया बैठक में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने इसी निराशाजनक राजनीति पर दुख प्रकट करते हुए कहा कि प्रत्येक छोटी - बड़ी घटना का राजनीतिकरण हो रहा है । सरकारों के प्रत्येक काम को वोट के नजरिये से देखाजाता है । पटनायक ने कहा कि परिपक्व जनतंत्र में निर्वाचित सरकार को जनहित में काम करने का अवसर मिलना ही चाहिए । भारत का माहौल वास्तव में चिंताजनक है । 

                          यहां छोटी - छोटी घटनाओं का भी राजनीतिकरण होता है । ऐसा राजनीतिकरण हिंसक आंदोलन का रूप भी लेता है । कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होती है । भारत की विश्व प्रतिष्ठा , समृद्धि और आत्मनिर्भरता राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा है । सबको साथ लेकर सबका विकास प्रधानमंत्री मोदी का एजेंडा है , लेकिन यहां प्रधानमंत्री की गरिमा का भी ध्यान रखा नहीं जाता । प्रधानमंत्री की गरिमा और अधिकार संपन्नता के औचित्य पर डॉ . आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था , ' प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के भवन की नींव है । जब तक हम उसे ऐसी अधिकारपूर्ण स्थिति प्रदान न कर सकें तब तक मंत्रिमंडल की जवाबदेही तय नहीं होगी । ' कल्पनाओं का भी राजनीतिकरण आश्चर्यजनक है । कुछ समय पहले काल्पनिक सहिष्णुता का प्रेत प्रचारित किया जा रहा था । नकारात्मक राजनीति के पक्षधर सिद्ध कर रहे थे कि भारत में घोर अव्यवस्था है । संविधान विहीनता है । असहिष्णुता के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय बनाया गया । राष्ट्रहित की क्षति हुई । विदेश नीति पर भी ऐसी राजनीति द्वारा नकारात्मक टिप्पणियां की जाती हैं । पूछा जाता है कि चीनी सेना की वापसी के प्रमाण क्या हैं ? नकारात्मक अभियान के कारण राफेल पर भी गैरजिम्मेदार बयानबाजी हुई और बोफोर्स तोपों पर भी । पाकिस्तान पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक पर भी भारत की प्रतिष्ठा गिराने वाले बयान दिए गए । कोरोना महामारी पर भारत सरकार के कार्यों की प्रशंसा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की है ।

राजनीति में आत्मचिंतन का समय

दुनिया प्रशंसा कर रही है , लेकिन यहां कभी टीके पर शंका उठाई जाती है और कभी लॉकडाउन के समय को लेकर । 

            भारत की राजनीतिक नियति यह नहीं है । यहां राजनीति और राजव्यवस्था का विकास प्राचीन काल में ही हो गया था । ब्रिटिश संसद का जन्म और विकास बाद में हुआ । ऋग्वेद , यजुर्वेद में समृद्ध राष्ट्र की अभिलाषाएं हैं । अथर्ववेद में कहा गया है कि राज्य संस्था का क्रमिक विकास हुआ है । प्राचीन राजव्यवस्था में राजा सभा समिति के प्रति जवाबदेह था । ऋषियों के तप बल से राष्ट्र का जन्म हुआ । राष्ट्र और राजनीति को जन्म देने वाले ये ऋषि वस्तुतः उस समय के राजनीतिक कार्यकर्ता हैं । यहां राजधर्म या नीतिशास्त्र का विकास कम से कम छह हजार वर्ष पहले ही शुरू हो गया था । कौटिल्य का अर्थशास्त्र ईसा से 340 वर्ष पूर्व का माना जाता है । कौटिल्य ने अपने पूर्ववर्ती राजनीतिक चिंतकों वृहस्पति , शुक्राचार्य , भारद्वाज , पराशर आदि के उल्लेख किए हैं । शुक्रनीति में उल्लेख है , ' नियुक्ति - पदोन्नति योग्यता और कार्य के आधार पर ही होनी चाहिए । जाति या कुल केआधार पर नहीं । जातियां श्रेष्ठता की मापदंड नहीं हैं । 

                                            ' प्राचीन भारत में राजनीतिशास्त्र के कई नाम थे । इसे दंडनीति , अर्थशास्त्र और राजधर्म आदि नामों से जाना जाता था , लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय नाम था नीतिशास्त्र । नीति वस्तुतः राज्य की नीति है । राजा में लोक संग्रह और नेतृत्व का गुण जरूरी बताया गया है । नेता ही जनता को गतिशील करता है । गतिशील समाज प्रगतिशील होता है । शुक्र नीति के अनुसार राजा के सुयोग्य नेता न होने के कारण प्रजा विपत्ति की नाव में डूब जाती है । महाभारत शांतिपर्व में समाजसेवा व्यक्ति निर्माण , राष्ट्र निष्ठा आदि आधारभूत सांस्कृतिक तत्वों को राजनीति से जोड़ा गया है ।

                                     समाज व्यवस्था इकहरी नहीं होती । समाज की एक संस्कृति होती है । एक दर्शन होता है । एक अर्थनीति होती है और सभी प्राप्तियों के लिए एक व्यावहारिक राजनीति भी होती है । राजनीति को संस्कृति और नैतिकता के बंधन और मर्यादा में रहना चाहिए । मर्यादा का अनुशासन संविधान है । संविधान में मूल कर्तव्य भी हैं , लेकिन ध्येय शून्य राजनीति समाज निर्माण के आदर्शपर आक्रामक हैं । शाहीन बाग , नागरिकता संशोधन कानून विरोध , किसान आंदोलन जानबूझकर तिल का ताड़ बनाए गए हैं । मूलभूत प्रश्न है कि विधिनिर्वाचित सरकारें जनहित में अपनी कार्यसूची क्यों नहीं चला सकती ? अल्पमत बहुमत वाली सरकार पर अपना निर्णय कैसे थोप सकता है ? यह आदर्श राजनीति नहीं है । प्रधानमंत्री भी कई अवसरों पर ऐसी ही बातें कर चुके हैं ।

           संकीर्ण राजनीति माहौल खराब करती है । संप्रति भारत में समूची राजनीति को हेय माना जाता है । इस कारण अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ता भी उचित सम्मान नहीं पाते । आम धारणा में सब धान बाईस पसेरी हैं । गांधी , लोहिया , आंबेडकर , दीनदयाल उपाध्याय ने सार्वजनिक जीवन की मर्यादाएं खींची थीं । लोहिया ने दीर्घकालीन राजनीति को धर्म बताया था । राजनीति राष्ट्रनिर्माण की दीर्घकालीन तप साधना है । आरोप प्रत्यारोप का खेल नहीं । जनतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष शत्रु नहीं होते , लेकिन अभी यही शत्रुता है । ऐसी राजनीति से समाज पर बुरा प्रभाव पड़ता है । राष्ट्रीय विमर्श के मुद्दे पार्श्व में चले जाते हैं ।

                                             आर्थिक समृद्धि को हमेशा राष्ट्रीय विमर्श में रहना चाहिए । शिक्षा , स्वास्थ्य , सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता महत्वपूर्ण विषय हैं । विपक्ष को सरकार की आलोचना का अधिकार है । आलोचना तथ्यगत और लोकहित से प्रेरित होनी चाहिए । तथ्यहीन आलोचना माहौल खराब करती है । इससे अनावश्यक तनातनी होती है । देश हमेशा तनाव में रहता है । ऐसे लोग देश को विकास मोड में नहीं आने देना चाहते । ये गंभीर प्रश्न हैं । यह राजनीति के लिए आत्मचिंतन का अवसर है ।


  ( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )

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