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संघीय भारत में राज्यों के बीच जल विवाद : निबंध

 संघीय भारत में राज्यों के बीच जल विवाद : निबंध 

                   नदियों की एक नैसर्गिक विशेषता यह है कि वे इंसान द्वारा बनाई गई सरहदों को नहीं मानतीं । अपने बहाव क्रम में वे कई बार राज्य अथवा देश की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती हैं । चूँकि नदी का जल एक अत्यंत मानवोपयोगी संसाधन है । अत : इस पर अधिकार हेतु राज्यों और देशों के बीच विवाद होता आया है । जल न सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है , बल्कि यह जीवन का आधार भी है , इसी कारण नदियों की महत्ता और भी बढ़ जाती है । नदियाँ धरती पर मीठे या पेय जल का प्रमुख स्रोत हैं । विश्व की अनेक सभ्यता - संस्कृतियों का उद्गम और विकास नदियों के तटों पर ही हुआ है , चाहे वह हड़प्पा सभ्यता ( सिंधु और सरस्वती ) हो या मिस्र ( नील ) या मेसोपोटामिया ( दजला और फुरात ) की सभ्यता या फिर चीनी सभ्यता ( पीली नदी ) । ये सभी सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही पुष्पित - पल्लवित हुई हैं । आज भी विश्व की 80 प्रतिशत आबादी ताज़े जल के लिये गंगा , ब्रह्मपुत्र , अमेजन , नील , टाइबर , राइन , डेन्यूब , येलो , मेकांग जैसी बड़ी नदियों पर निर्भर करती है । लेकिन दुखद बात यह है कि जल प्रदूषण , जलवायु परिवर्तन , ग्लोबल वार्मिंग और नदी जल के अत्यधिक दोहन से नदियों के जल स्तर में लगातार कमी आ रही है , जिससे अनेक देशों के सामने जल समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है । इतना सब होने पर भी गंदी राजनीति अपने फायदे के लिये नदी जल - विवाद को फलने - फूलने का अवसर प्रदान करती है और हमेशा इसे बनाए रखना चाहती है ।

                   पिछले 70 सालों में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में 70 प्रतिशत की कमी आई है , जबकि जनसंख्या में लगभग साढ़े तीन गुना की वृद्धि हुई है , अतः बढ़ती आवश्यकताओं और घटते जलस्रोत के कारण भारत में भी नदी जल को लेकर विवाद देखने को मिलते हैं । कभी यमुना - सतलज लिंक नहर व रावी - व्यास के पानी के लिये पंजाब - हरियाणा में तनातनी होती है तो कभी कृष्णा नदी का जल आंध्र , कर्नाटक , तेलंगाना और महाराष्ट्र के लिये विवाद का कारण बनता है । कभी वंशधारा नदी जल का विवाद उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के संबंधों में उबाल ला देता है तो कभी कावेरी के पानी का मुद्दा कर्नाटक और तमिलनाडु की सड़कों पर आग लगा देता है । कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में बहने वाली अधिकांश नदियों के जल बँटवारे को लेकर राज्यों में विवाद है । ये नदी जल विवाद भारतीय संघ के विभिन्न राज्यों के बीच विद्वेष का कारण बनते हैं , जिससे सहकारी संघवाद की अवधारणा को चोट पहुँचती है । अब यदि हम देश के अंदर बहने वाली नदियों के जल बँटवारे पर विचार करें तो अनेक सवाल उभरते हैं , जैसे- क्या वर्तमान संवैधानिक प्रावधान अंतर्राज्यीय नदी जल बँटवारे का समाधान करने में सक्षम है ? क्या पानी को समवर्ती सूची में शामिल किया जाना चाहिये ? क्या नदी जल को लेकर राज्यों के बीच हो रहे झगड़ों से भारत के संघीय ढाँचों को खतरा है ? इन समस्त प्रश्नों के समुचित उत्तर न सिर्फ अंतर्राज्यीय नदी जल समस्या को समझने में सहायक सिद्ध होंगे , अपितु केंद्र - राज्य संबंधों को परखते हुए जल विवाद के स्थायी निदान का मार्ग भी प्रशस्त करेंगे ।

                 सच्चाई यह है कि भारत में कई राज्यों के बीच नदी जल विवाद आज भी विद्यमान है , जिससे सहकारी संघवाद की अवधारणा चोटिल होती है । किंतु इतना कह देने से ही अनुच्छेद -262 या अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम -1956 की अहमियत समाप्त नहीं हो जाती । दरअसल संघात्मक देशों के सामने एक जटिल चुनौती यह होती है कि संघ का निर्माण करने वाले विभिन्न राज्यों के आपसी संबंध सहज व तनावरहित रहें । संविधान निर्माताओं को यह अनुमान था कि नदियों के जल बँटवारे का मुद्दा राज्यों के बीच विवादों का एक बड़ा कारण बन सकता है । वे यह भी समझते थे कि ऐसे विवादों का समाधान न्यायपालिका के भरोसे छोड़ देना काफी नहीं होगा , बल्कि उन्हें आपसी सहमति , सुलह और मध्यस्थता के ज़रिये सुलझाने से राज्यों में परस्पर सौहार्द कायम रहेगा । इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संविधान में अनुच्छेद -262 की व्यवस्था की गई । यह अनुच्छेद संविधान के जिस भाग में सम्मिलित है , वह केंद्र - राज्य संबंधों के अनेक पहलुओं को बयान करता है यानी संविधान का अनुच्छेद -262 केंद्र - राज्य संबंधों को ध्वनित करने वाला प्रावधान है । यह अनुच्छेद संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता का परिचायक है । अत : नदी जल विवाद को लेकर इसके औचित्य पर प्रश्न उठाना जल्दबाजी होगी ।

             जहाँ तक इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग करते हुए अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम ( 1956 ) की सक्षमता पर सवाल है तो यहाँ भी ध्यान देने योग्य है कि यह कोई कमज़ोर कानून नहीं है । इसके तहत संसद को अंतर्राज्यीय नदी जल विवादों के निपटारे हेतु अधिकरण बनाने की शक्ति प्रदान की गई है । साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि अधिकरण का निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बराबर महत्त्व रखेगा तथा जब केंद्र सरकार अधिकरण के निर्णय को स्वीकार कर लेगी ,तब वह उसे राजपत्र में प्रकाशित कर देगी , जिसे मानना राज्यों के लिये बाध्यकारी होगा । इस प्रकार देखें तो यह बहुत ही ठोस कानून लगता है । किंतु इस कानून में कुछ खामियाँ थीं , खासकर अधिकरण के गठन तथा इसके फैसले की कोई समय सीमा निश्चित न होने के कारण । आवेदन मिलने के बाद भी केंद्र सरकार कई बार लंबे समय तक अधिकरण का गठन नहीं करती थी तथा गठन के पश्चात भी अधिकरण अपना फैसला काफी विलंब से देता था । हालाँकि इसे सरकारिया आयोग ( 1988 ) की सिफारिशों अधिकरण ही विवादों का निपटारा करने में सफल हुए . यह कमी ज़रूर रही । इसके पीछे राजनीतिक कारणों के साथ - साथ क्रियान्वयन के आधार पर 2002 में संशोधित कर लिया गया । फिर भी इस कानून के आधार पर गठित आठ अधिकरणों में से मात्र ती की कमज़ोरी भी महत्त्वपूर्ण है । 

                    दूसरी बात यह कि केंद्र राज्य संबंधों के विवेचन में यह उल्लेखनीय है कि दोनों के बीच का संबंध इस बात पर निर्भर करता है कि केंद्र की सरकार कितनी मजबूत है । अगर केंद्र की सरकार एक दल की है और उसके पास लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हैं तो ऐसे में स्वाभाविक तौर पर केंद्र का वर्चस्व बढ़ जाता है । इसके विपरीत यदि केंद्र में गठबंधन की सरकार है और गठबंधन में क्षेत्रीय दलों की प्रभावी भूमिका है तो स्वाभाविक तौर पर राज्यों की सौदेबाज़ी की शक्ति बढ़ जाती है । इस आधार पर यदि देखें तो नदी जल समझौतों की विफलता के पीछे इस संवैधानिक प्रावधान या इसके आधार पर बने कानूनों की कमज़ोरी नहीं , बल्कि गठबंधन सरकार की मजबूरियाँ और क्षेत्रीय दलों का सशक्त उभार ज्यादा महत्त्व रखता है । पर हाँ , इस अनुच्छेद के तहत उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को सीमित किया जाना कौतूहल पैदा करता है ।

          संघीय भारत में नदी जल विवाद में अक्सर यह सवाल उठता रहता है कि नदी जल के मामले में केंद्र का नियम मान्य होगा या राज्य का ? यूँ तो नदी जल को राज्य सूची में रखा गया है , किंतु नदी घाटी के नियमन और विकास को केंद्र सूची का विषय माना गया है , इस कारण यह मुद्दा और उलझा हुआ नज़र आता है । कुछ विद्वान नदी जल विवाद के बने रहने के पीछे इसे भी एक महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं । अतः उनकी मांग रहती है कि नदी जल को समवर्ती सूची में शामिल कर लिया जाए । सामुदायिक जल प्रबंधन की हमेशा से वकालत करने वाले जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने भी पानी को समवर्ती सूची में लाने का समर्थन किया है । वहीं सरकारिया आयोग ने इसे राज्य सूची में ही रखने की अनुशंसा की थी । केंद्र सूची में इसे इस वजह से भी सीधे तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता है , क्योंकि नदी जल का व्यापक उपयोग कृषि सिंचाई कार्यों में भी किया जाता है और कृषि सिंचाई को निर्विवाद रूप से राज्य सूची का विषय माना गया है । हालाँकि मई 2016 में जल संसाधन संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने नदी जल को समवर्ती सूची में शामिल करने की सिफारिश की है । स्थायी समिति की राय है कि यदि पानी पर राज्यों के बदले केंद्र का अधिकार हो तो नदी जल विवाद के साथ - साथ बाढ़ - सुखाड़ जैसी स्थितियों से बेहतर ढंग से निपटना संभव हो सकेगा । पर क्या वाकई ऐसा होगा ?

            यह बात सच है , समवर्ती सूची में आने से केंद्र पानी संबंधी जो भी कानून बनाएगा , उन्हें मानना राज्य सरकारों की बाध्यता होगी । केंद्रीय जल नीति हो या जल कानून , वे पूरे देश में एकसमान लागू होंगे । पानी के समवर्ती सूची में आने के बाद केंद्र द्वारा बनाए गए कानून के समक्ष राज्यों के कानून स्वतः निष्प्रभावी हो जाएंगे और जल बँटवारा विवाद में केंद्र का निर्णय अंतिम होगा । ' नदी जोड़ो परियोजना ' के संबंध में अपनी आपत्ति को लेकर अड़ जाने के राज्यों के अधिकार पर पाबंदी लग जाएगी और केंद्र सरकार इसे बेरोक - टोक पूरा कर सकेगी । लेकिन इस बात में संदेह ज़रूर है कि इससे राज्यों के बीच नदी जल को लेकर होने वाले विवाद रुक जाएंगे । संभव है , राज्यों की कृषि सिंचाई परियोजनाओं को इससे हानि पहुँचे तथा नदी जल उपयोग को लेकर तनाव और ज़्यादा गंभीरता से सामने आए । एक तर्क यह भी है कि केंद्रीकरण से तानाशाही व्यवस्था को बल मिलता है , जबकि पानी समाज के लिये है । अतः उसके प्रबंधन की व्यवस्था भी समाज के हाथों में ही होनी चाहिये । ऐसे भी नदी जल के समवर्ती सूची में आने से जलाधिकार के संघर्ष और पानी के व्यवसायीकरण की संभावनाएँ घटने के बजाय बढ़ेगी ।

             यहाँ यह बात भी समझने की है कि नदी जल को लेकर वर्तमान में जो संवैधानिक स्थिति है , उसका मतलब है कि केंद्र सरकार पानी को लेकर राज्यों को दिशा - निर्देश जारी कर सकती है । केंद्रीय जल नीति व केंद्रीय जल कानून बना सकती है , लेकिन उन्हें उसी रूप में या पूर्णतः मानने के लिये वह राज्य सरकार को बाध्य नहीं कर सकती । किंतु राज्य का विषय होने का मतलब यह कतई नहीं है कि नदी जल के मामले में केंद्र का इसमें कोई दखल नहीं है । राज्यों के बीच बहने वाले नदी जल को लेकर जब विवाद हो जाए तो नि : संदेह केंद्र उसमें दखल देने का अधिकार रखता है । इस अधिकार का उपयोग करते हुए ही तो एक समय केंद्र सरकार द्वारा जल रोकथाम एवं नियंत्रण कानून ( 1974 ) की धारा 58 के तहत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ' और ' केंद्रीय जल आयोग ' का गठन किया गया था । इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान संघात्मक होने के बावजूद एकात्मक हो जाता है अर्थात् विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी राज्य सभा के प्रस्ताव द्वारा संसद कानून बना सकती है ( अनुच्छेद 249 ) । अत : यह आवश्यक नहीं कि नदी जल को समवर्ती सूची में ही शामिल कर दिया जाए ।

                  जहाँ तक बात है संघीय ढाँचे की तो जब भी दो या उससे अधिक राज्यों के बीच नदी जल विवाद गहराता है तो ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे भारतीय संघीय ढाँचे के दरकने का खतरा उत्पन्न हो गया हो । तो क्या सही मायनों में हमारा भारतीय संघ इतना कमजोर है कि वह नदी जल उपयोग के मामलों में भी ढहने के कगार पर आ जाता है ? क्या राज्यों के बीच अपने अधिकार को लेकर हुए संघर्ष का मतलब संघीय ढाँचे की बर्बादी है ? और क्या सच में केंद्र - राज्य के बीच का संबंध इतना नाजुक है कि नदी जल के अधिकार के मुद्दे पर सहकारी संघवाद की भावना उसमें डूब जाएगी ? इन प्रश्नों के उत्तर संघीय ढाँचे , सहकारी संघवाद और नदी जल विवाद के अंतर्संबंधों को निरूपित करेगा ।

संघीय भारत में राज्यों के बीच जल विवाद : निबंध

                   संघीय ढाँचे का सामान्य अर्थ यह होता है कि भारत राज्यों का संघ है , जिसमें केंद्र तथा राज्यों के बीच प्रशासनिक , आर्थिक और न्यायिक शक्तियों का उचित बँटवारा है । भारतीय संघ राज्यों के आपसी सम्मिलन और समझौतों का परिणाम नहीं है , बल्कि यह संविधान सभा की एक स्पष्ट घोषणा है , जिसने अपनी शक्ति तथा प्राधिकार भारत की प्रभुत्व संपन्न जनता से प्राप्त किया था । यही वजह है कि इससे किसी भी राज्य को अलग होने का अधिकार संविधान नहीं देता । भारतीय संघीय प्रणाली को ' सहकारी संघवाद ' के नाम से जाना जाता है । वर्तमान में संघ और राज्यों के बीच वित्तीय और प्रशासनिक मामलों पर सहयोग ही सहकारी संघवाद है । सहकारी संघ के तहत केंद्र तथा राज्यों के बीच सहयोग की भावना होती है । यह संघीय ढाँचे का आधार है । संघीय ढाँचे की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि इसकी हर इकाई खुद को संघ का एक अंश समझती है और तद्नुरूप इसके विकास में अपना योगदान देती है । इस प्रकार के अटूट रिश्ते वाले संघीय ढाँचे को नदी जल विवाद से खरोंच की संभावना तो है , किंतु उसके धराशायी होने के आसार कतई नहीं हैं ।

                    देखा जाए तो राज्यों के बीच हुए नदी जल विवाद से विद्वेष का सृजन होता है और इसके त्वरित निपटान न होने की वजह से संघीय ढाँचे के प्रति राज्यों में अविश्वास पनपता है । कई बार केंद्रीकृत संघवाद , एकात्मक संघवाद और सौदेबाज़ी के संघवाद के समय सहकारी संघवाद की भावना लुप्त हो जाती है । वैसी परिस्थिति में नदी जल विवाद का फैसला केंद्र द्वारा थोपा जा सकता है या फिर इसे अत्यधिक विलंबित किया जा सकता है । जब राज्य सरकार अपनी ही जनता को , अपने ही देश के पड़ोसी राज्य के स्वार्थ के कारण अपने भू - भाग में बहने वाली नदी के जल से भी लाभान्वित नहीं कर पाती , तब उसमें अलगाव की भावना का अवतरण स्वाभाविक है । कावेरी , रावी - सतलज - व्यास , कृष्णा , महादयी नदी विवाद आदि से उपजा आक्रोश ऐसे ही उदाहरण हैं । कई दफा नदी जल विवाद आर्थिक के साथ - साथ सांस्कृतिक विविधता के कारण भावात्मक मुद्दा भी बन जाता है तब यह संघीय ढाँचे के लिये ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है । लेकिन ऐसी स्थिति में हमारे संघीय ढाँचे का स्वरूप विरूपित नहीं होता , उसके धराशायी होने की तो बात सोचना भी बेमानी होगी । फिर भी इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि बार - बार उभरते नदी जल विवादों से संघीय ढाँचा चोटिल होता है तथा सहकारी संघवाद की भावना का क्षरण होता है । अतः इसके समुचित समाधान का मार्ग प्रशस्त करना चाहिये ।

                अंततः यही कहा जा सकता है कि एक संघात्मक संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है , परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि उनका एक दूसरे से कोई संबंध न हो । चूँकि दोनों सरकारें एक ही नागरिक पर शासन करती हैं और उनके कल्याण के लिये कार्यों को संपादित करती हैं , इसलिये आपस में सहयोग एवं समन्वय आवश्यक है । यह बात सच कि नदी जल बँटवारे को लेकर कई राज्यों में विवाद विद्यमान हैं , परंतु उनसे देश के संघीय ढाँचे को अभी तक गंभीर नुकसान नहीं हुआ है । शायद हमारा सहकारी संघवाद इतना कमजोर नहीं हुआ है कि वह जल विवाद से बिखर जाए , पर सचेत रहने की आवश्यकता ज़रूर है । हालाँकि नदी जल को समवर्ती सूची में शामिल किया जाए या नहीं यह अलग मुद्दा है , लेकिन अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता में वृद्धि पर विचार आवश्यक है ।

                 उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय नदी घाटी जल विवादों का समाधान हेलसेंकी समझौता ( 1966 ) के अनुसार तर्कसंगतता तथा समानता के आधार पर किया जाता है । विवाद की स्थिति में आपसी चर्चा की जाती है और अंत में अंतर्राष्ट्रीय प्राधिकरण का दरवाज़ा खटखटाया जाता है । इसी प्रकार भारत में जल विवादों का समाधान संविधान के अनुच्छेद 262 के आधार पर किया जाता है । संभव है , इसमें कुछ खामियाँ हों या इस आधार पर बने अधिनियमों व अधिकरणों के सही क्रियान्वयन में समस्या आए , फिर भी इसे खारिज नहीं किया जा सकता । यदि हम पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि ( 1960 ) का सम्मान कर सकते हैं , नेपाल के साथ महाकाली नदी जल समझौते ( 1997 ) का निर्वाह कर सकते हैं तो आखिर अपने देश में अंतर्राज्यीय नदी विवाद के लिये एक सर्वमान्य व सर्वस्वीकृत वैधानिकी का विकास क्यों नहीं कर सकते ! यही हमारे सहयोगात्मक संघवाद को पुनः सत्य प्रमाणित करने की पहल होगी ।


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