भारतीय संगीत
परिचय
संगीत किसी भी संस्कृति की आत्मा होती है और भारत में संगीत की सुदीर्घ परंपरा रही है । यह कहा जाता है कि पृथ्वी पर नारद मुनि ( ऋषि ) ने संगीत कला का शुभारंभ किया था । उन्होंने नादब्रह्म नामक पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त ध्वनि के विषय में भी यहां के निवासियों को बताया था ।
सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों से एक संगीत वाद्ययंत्र , सात - छेद वाली बांसुरी बरामद की गई है । माना जाता है कि एक अन्य उपकरण रावणहत्था की उत्पत्ति श्री लंका की हेला सभ्यता से हुई है और यह विश्व के इतिहास में प्राचीनतम है । हमें पहली बार संगीत का साहित्यिक प्रमाण दो हजार वर्ष पहले वैदिक काल में मिलता है । राग खरहरप्रिया के सभी सातों स्वर साम वेद में अवरोही क्रम में पाए जा सकते हैं । संगीत विज्ञान को गन्धर्व वेद कहा जाता है । यह सामवेद का एक उपवेद है । वीणा के कुछ भागों का उल्लेख ऐतरेय आरण्यक में आता है । जैमिनी ब्राह्मण सामूहिक रूप से नृत्य और संगीत की बात करते हैं । संगीतविदों ने ओम शब्द को सभी रागों और स्वरों का स्रोत होने के विषय में सिद्धांत प्रतिपादित किया है । चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पाणिनी ने संगीत कला का पहला वास्तविक संदर्भ दिया लेकिन संगीत सिद्धांत के पहले संदर्भ की लिखित और संकलित चर्चा ईसा पूर्व 200 से 200 ईसवी के बीच भरत द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र में मिलती है ।
भारतीय संगीत का इतिहास
भारतीय संगीत का सर्वाधिक विकास भक्ति स्थलों पर बजाए जाने वाले संगीत से प्रभावित रहा है । इस प्रकार का कर्मकांडीय संगीत संगम नामक संगीत के प्रकार के माध्यम से उत्तर वैदिक काल में प्रदर्शित किया जाता था , जिसमें छंदों का जाप सम्मिलित होता था एवं जिसे संगीत धुनों के अनुरूप बनाया जाता था । यहाँ तक कि जातिगान नामक संगीत के कथात्मक प्रकार के लिए महाकाव्य भी निर्धारित किए गए थे ।
भरत द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र पहली रचना थी जिसमें संगीत विद्या के विषय को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया । इसमें संगीत पर कई महत्वपूर्ण अध्याय हैं , विशेष रूप से वे जिन्होंने सप्तक की पहचान की और इसकी 22 कुंजियों पर विस्तृत रूप से चर्चा की । इन 22 कुंजियों को श्रुतियों के रूप में पहचाना गया । प्रति सप्तक 22 श्रुतियों के अस्तित्त्व का समर्थन करने वाले ' दातीलम ' में भी यह भेद प्रतिपादित किया गया है और यह सुझाव दिया कि केवल इन्हें ही मानव शरीर बना सकता है । सारंगदेव , ( 13 वीं शताब्दी के संगीतज्ञ , जिन्होंने संगीत रलाकर पुस्तक लिखी ) , ने इस दृष्टिकोण का समर्थन किया ।
संगीत रत्नाकर 264 रागों के बारे में बताती है जिनमें कुछ उत्तर भारतीय तथा द्रविड़ रंगपटल की सूची से लिए गए हैं । इसका सबसे बड़ा योगदान विभिन्न श्रुति की पहचान करना , उनका वर्णन करना तथा अलग - अलग श्रेणियों में उन्हें वर्गीकृत करना है । बाद में , संगीतशास्त्र पर कुछ मध्ययुगीन ग्रंथों ने विशेष विषयों पर ध्यान केंद्रित किया , उदाहरण के लिए , मतंगमुनि द्वारा 6-8वी शताब्दी के बीच संस्कृत में लिखी गई बृहदशी , ' राग ' की परिभाषा पर केंद्रित है
इस अवधि का एक दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ 16 वीं सदी में रामामात्य द्वारा लिखित स्वरमेला - कलानिधि है । 17 वीं सदी में वेंकटमखिन द्वारा लिखित चतुर्दडी - प्रकाशिका भी कर्नाटकी ( Carnatic ) संगीत विद्या पर महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए प्रसिद्ध है । प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकाल के दौरान , हमें ऐसे गुरुकुलों के अस्तित्व के साक्ष्य मिलते हैं जहां संगीत कला में प्रवीण बनने के लिए छात्र शिक्षक के साथ रहते थे ।
संगीत के स्वरूप में परिवर्तन फारसी तत्वों के प्रभाव से आया । इस्लामी और फारसी तत्वों के इस प्रवेश ने उत्तर भारतीय संगीत का चेहरा परिवर्तित कर दिया , उदाहरण के लिए , शासकों द्वारा संरक्षित गायन की भक्ति शैली 15 वीं शताब्दी तक ध्रुपद ( Dhrupad ) शैली में रूपांतरित हो चुकी थी । 17 वीं शताब्दी तक , गायन का नया रूप हिंदुस्तानी संगीत में विकसित हो चुका था । इसे ख्याल शैली कहा जाता है । इसके अतिरिक्त , ' लोक ' गायन की अधिक - से - अधिक शैलियां उभरने लगी थीं ।
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