भारतीय नृत्य विधाएं
परिचय
भरत के नाट्यशास्त्र में वर्णित है कि जब सभी देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा से मनोविनोद के एक साधन की रचना करने की प्रार्थना की , तो उन्होंने चारों वेदों के कुछ पहलुओं को मिला कर नाट्य वेद नाम के पांचवें वेद की सृष्टि की । नाट्य स्वयं में नृत्य , नाटक तथा संगीत का मिश्रण है और इसमें ऋग्वेद से पथ्य ( शब्द ) , यजुर्वेद से अभिनय ( भंगिमाएं ) , सामवेद से गीत ( संगीत ) तथा अथर्ववेद से रस ( भाव ) लेकर मिश्रित किए गए हैं ।
इससे भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में नृत्य को दैवीय महत्व प्रदान करने की बात उजागर होती है । सृष्टि , पालन तथा संहार के प्रतीक शिव के तांडव नृत्य से लेकर पार्वती के नारी सुलभ प्रत्युत्तर तक , भारतीय पौराणिक कथाएं नृत्य विधाओं तथा अभिव्यक्तियों के दृष्टान्तों से भरी पड़ी हैं । उसी प्रकार , भीमबेटका में सामुदायिक नृत्य संबंधी नक्काशियाँ तथा हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से प्राप्त कांसे की नृत्यमयी बाला सामाजिक मनोरंजन विधा के रूप में नृत्य के महत्व को उजागर करती हैं ।
नृत्य का पहला औपचारिक उल्लेख भारत की प्रसिद्ध कृति नाट्यशास्त्र में पाया जाता है जिसमें भारतीय शास्त्रीय नृत्य के विविध पहलुओं पर सर्वाधिक विविध तथा रोचक प्रबंध प्राप्त होते हैं । इस कृति का संकलन संभवतः 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के बीच किया गया तथा इसमें तकनीकों , मुद्राओं , भावों , आभूषणों , मंच तथा यहाँ तक कि दर्शकों के बारे में विस्तृत ब्यौरा प्राप्त होता है । भरत मुनि नृत्य को ' पूर्ण कला ' की संज्ञा देते हैं , जिसकी परिधि में कला के अन्य सारे रूप संगीत , शिल्पकला , काव्य तथा नाटक - सम्मिलित हैं ।
नृत्य के स्वरूप
नाट्य शास्त्र के अनुसार , भारतीय शास्त्रीय नृत्य के दो आधारभूत स्वरूप हैं :
☆ लास्य : इसमें लालित्य , भाव , रस तथा अभिनय निरूपित होते हैं । कला का यह रूप नृत्य की नारी की विशेषताओं का प्रतीक है ।
☆ तांडव : यह नृत्य नर अभिमुखताओं का स्वरूप है तथा इसमें लय तथा गति पर अधिक बल दिया गया है ।
नृत्य पर नंदिकेश्वर के प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिनय दर्पण ( 5 वीं से 4 थी सदी ईसा पूर्व ) के अनुसार , किसी अभिनय को तीन आधारभूत तत्वों में विभाजित किया गया है :
☆ नृत्ता : इसका संदर्भ लयबद्ध रूप से किए जाने वाले नृत्य के आधारभूत पद संचालनों से है जिनमें किसी अभिव्यक्ति या मनोदशा का समावेश नहीं किया गया है ।
☆ नाट्य : इसका आशय नाटकीय निरूपणों से है जो नृत्य प्रस्तुति के माध्यम से विस्तृत कथा को निरूपित करता है ।
☆ नृत्य : नृत्य का आशय नर्तन के माध्यम से वर्णित रस तथा भावों से है । इसमें मूक अभिनय तथा मुद्राओं सहित नर्तन में प्रयुक्त अभिव्यक्ति की विभिन्न विधियों का समावेश रहता है ।
नंदिकेश्वर पुनः नायक - नायिका भाव का सविस्तार वर्णन करते हैं जिसमें शाश्वत देवता को नायक तथा नृत्य का प्रदर्शन करने वाले भक्त को नाटक की नायिका के रूप में देखा जाता है । नृत्य के द्वारा निम्नलिखित नौ रसों या भावों की अभिव्यक्ति होती है ।
☆ प्रेम के लिए श्रृंगार
☆ हास्य तथा विनोद नाटक के लिए हास्य
☆ क्रोध के लिए रौद्र दुखांत घटना के लिए करुणा
☆ घृणा के लिए बीभत्स
☆ संत्रास के लिए भयानक
☆ शूरता के लिए वीर
☆ आश्चर्य के लिए अद्भुत
☆ शान्ति तथा अक्षोभ के लिए शांत
इन मनोदशाओं तथा अभिव्यक्तियों को मुद्राओं - हाथ की भंगिमाओं तथा शरीर की मुद्राओं के मेल के माध्यम से व्यक्त किया जाता है । 108 आधारभूत मुद्राएं होती हैं । इनके मेल से किसी विशिष्ट भाव का चित्रण किया जाता है l
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