भारत के प्रमुख जनजातीय विद्रोह (Major Tribal Rebellions of India)
भूमिका :-
भारत का उपनिवेश‑कालीन इतिहास केवल मैदानी भारत के किसान‑आन्दोलनों या 1857 के महान विद्रोह तक सीमित नहीं है; इसके समानान्तर भारत के वनों ‑ पर्वतों में बसने वाली आदिवासी या जनजातीय समुदायों ने भी बड़ी संख्या में सशस्त्र प्रतिरोध किये। इन जनजातीय आँदोलनों ने अंग्रेज़ी शासन‑व्यवस्था, साहूकारी शोषण, ज़मींदारी और स्थानीय मुखियाओं की मिलीभगत से उपजी अत्याचारपूर्ण व्यवस्था को सीधी चुनौती दी। प्रस्तुत लेख में 1760 के दशक से लेकर स्वतंत्रता‑संग्राम के उत्तरार्द्ध (लगभग 1940 के दशक) तक के प्रमुख जनजातीय विद्रोहों का क्रमवार, विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है।
विद्रोहों की पृष्ठभूमि और सामान्य कारण
भूमि पर अधिकार का हनन – अंग्रेज़ों ने स्थायी बंदोबस्त, मालगुज़ारी व वन‑कानूनों द्वारा सामुदायिक भूमि को व्यक्तिगत या सरकारी संपत्ति में बदल दिया।
वन‑उत्पादों का एकाधिकार – नमक, लाख, महुआ, इमारती लकड़ी आदि पर सरकारी नियंत्रण; पारम्परिक आजीविका बाधित।
साहूकारी शोषण – निरक्षर आदिवासी जनता ऊँचे ब्याज पर क़र्ज़ के जाल में फँसी; भूमि जब्ती आम हुई।
सांस्कृतिक‑धार्मिक अपमान – मिशनरी‑गतिविधियों तथा औपनिवेशिक कानूनों ने परम्परागत रीति‑रिवाज़ों को चुनौती दी।
स्थानीय ज़मींदार‑मुखिया‑ठेकेदार का गठजोड़ – आदिवासी मुखिया शक्तिहीन; ठेकेदारों की बेगार‑प्रथा ने प्रतिरोध को जन्म दिया।
प्रमुख जनजातीय विद्रोह (1760‑1940)
1 हल्बा विद्रोह (1774‑1779)
क्षेत्र: छत्तीसगढ़ का दन्तेवाड़ा‑कांकेर‑कोण्डागांव इलाका।
जनजाति: हल्बा (कभी‑कभी गोंड शासकों के सैनिक)।
कारण: मराठा एवं अंग्रेज़ी हस्तक्षेप से परम्परागत पॉलायगढ़ (छोटे‑छोटे गढ़ों) की स्वायत्तता समाप्त; अतिरिक्त लगान और सैनिक भर्ती।
नेतृत्व: लोकल गढ़पति; कोई एककृत नेता नहीं, फिर भी बस्तर रियासत के देव भूसुम (धर्म‑पुरोहित) की महत्त्वपूर्ण भूमिका।
घटनाक्रम: मराठों‑अंग्रेज़ों के संयुक्त दमनकारी अभियानों के विरुद्ध गुरिल्ला पद्धति से संघर्ष; अनेक गढ़ ध्वस्त।
परिणाम: 1779 तक विद्रोह कुचल दिया गया; किन्तु छत्तीसगढ़ में आदिवासी चेतना का प्रथम स्फुलिंग माना जाता है।
2 चूआड़ विद्रोह की श्रृंखला (1766‑1816)
क्षेत्र: बंगाल का जंगलमहल (मेदिनीपुर, बांकुरा, पुरुलिया)।
जनजाति: चूआड़ (प्रकृतिक रूप से भूमिहीन शिकारी‑किसान) एवं भूमिज़।
मुख्य लहरें:
1766‑1771 : राजशाही सैनिक दस्ते का हमला, जबरिया राजस्व वसूली।
1798‑99 : रानी शीला व बसुमती की सहभागिता; 5000 आदिवासी सैनिक।
1816 : स्थायी बंदोबस्त लागू होने पर पुनः भड़क उठा।
प्रभाव: अंग्रेज़ों को ‘जंगलमहल’ जिला अलग प्रशासनिक इकाई बनाना पड़ा; 1833 का विशेष जंगलमहल विनियमन।
3 भील विद्रोह (1817‑1819; 1825‑1831)
क्षेत्र: पश्चिमी घाट एवं मालवा (खासकर खंडवा, धार, झाबुआ)।
नेता: गंगाधरड़ाव होल्कर को हटाकर सेवाग्राम के भील सरदार; बाद में गोविंद गुरू (1890 के दशक में भभूत और मांझी अधिकार के लिये)।
कारण: 1818 के पेशवा‑पराजय के बाद अंग्रेज़ी नियंत्रण; जमींदारों‑सोयमुखियों का अत्याचार।
घटनाएँ: भीलों ने अंग्रेज़ी चौकियों पर छापामार; तांत्या भील को ‘भारत का रॉबिन हूड’ कहा गया।
दमन: ‘मालवा भील कॉर्प्स’ नामक विशेष सेना गठित; जंगलों में सामूहिक दमन, फलस्वरूप 1831 तक शान्ति।
4 कोल विद्रोह (1831‑1832)
क्षेत्र: छोटा नागपुर (वर्तमान झारखंड के राँची‑सिंहभूम‑हजारीबाग इलाके)।
जनजाति: हो, मुंडा, उरांव, भूमिज़—सामूहिक रूप से ‘कोल’।
नेतृत्व: बुधु भगत, जूआ लाकड़ा एवं स्थानीय परगनैत।
प्रेरक कारण:
ज़मींदारों ने मौजूदा ‘मुंडा‑मांझी’ व्यवस्था तोड़ी।
साहूकारों के क़र्ज़ में डूबे किसान; ‘थीकादार’ (ठेकेदार) का उत्पीड़न।
घटनाक्रम: दिसम्बर 1831 में पलामू से निकलकर राँची‑हजारीबाग में तेजी; थानों‑कोर्ट‑कचहरी पर हमले; डेढ़ माह में 1000+ दिक्कुओं की हत्या।
परिणाम: अंग्रेज़ों ने 1833 में ‘ब्लैक रेज्युलेशन’ पारित कर आदिवासियों को कुछ भूमि‑सुरक्षा दी, पर सैन्य दमन में हज़ारों कोल मारे गये।
5 खोंड विद्रोह (1837‑1856)
क्षेत्र: कालाहाण्डी, कंधमाल, गंजाम (ओडिशा)।
जनजाति: खोंड (कंध)।
नेतृत्व: चक्रब्यूह भीषण तांत्या तथा डोरा बिसोई।
विशेषता:
मेरिया प्रथा (मानव‑बलि) पर अंग्रेज़ प्रतिबन्ध से सांस्कृतिक असन्तोष।
कठोर वन‑कानून एवं कर‑वसूली।
रणनीति: पहाड़ी किलों एवं घने जंगलों में छिपकर गुरिल्ला ठीठकुठ; ब्रिटिश कप्तान मेक्फर्सन ने ‘खोंड एजेंसी’ बनायी।
समापन: 1856 तक फैला; परिणामस्वरूप ओडिशा पहाड़ों में प्रत्यक्ष शासन कम किया गया, मिशनरी गतिविधियाँ सीमित की गयीं
6 संथाल हूल (1855‑1856)
क्षेत्र: राजमहल की पहाड़ियाँ, भागलपुर‑बीरभूम‑साहेबगंज (अब झारखंड‑पश्चिम बंगाल‑बिहार त्रिकोण)।
जनजाति: संथाल; ‘हूल’ का अर्थ युद्ध/क्रान्ति।
नेता: सिद्धू, कान्हू, चाँद, भैरव—चारों मुरमु शहीद भाई।
तत्कालिक कारण:
‘दामिन‑ई‑कोह’ में कॉम्पैक्ट संथाल बसावट के बावजूद साहूकारों का क़र्ज़‑शोषण।
रेलवे लाइन निर्माण से भूमि छिनना।
पुलिस‑दरोगा‑दरोगाओं की रिश्वतखोरी।
घटनाक्रम: जून 1855 को भगनाडीह ग्राम से बिगुल; 10,000+ संथालों ने धनुष‑तीर और भाले से सरकारी दफ़्तरों को जला दिया।
दमन: मार्शल लॉ; 10,000 से अधिक संथाल नरसंहार; सिद्धू‑कान्हू 1856 में पकड़े और फाँसी।
उत्तराधिकार: 1855 का सेन्टल टेनेंसी एक्ट (1876) व 1885 का चोटानागपुर टेनेंसी एक्ट—भूमिSuraksha का कानूनी आधार।
7 रम्पा (कोया) विद्रोह
पहली लहर (1879‑1880)
क्षेत्र: गोडावरी के उत्तर वल्लभारिपाटनम् का पहाड़ी‑पट्टा (आन्ध्र‑ओडिशा सीमा)।
जनजाति: कोया व कोण्डारेड्डी।
नेता: ताम्बरा साम।
कारण: ‘रम्पा’ पर्वतीय पुलिस‑कॉर्डन, वन‑कर, बेगार व मदिरा‑प्रतिबन्ध।
दमन: मेजर बिंद्रुकेट के नेतृत्व में सेना; विशेष रम्पा कानून।
दूसरी लहर (1922‑1924)
नेता: स्थानीलाल सीताराम राजू (Alluri Sitarama Raju)।
रणनीति: ‘गुडेम गुरीला युद्ध’—पुलिस चौकियों पर धावा, हथियार लूट; चरखा‑गाँधी आदर्श के साथ।
दमन: 6 मई 1924 को राजू पकड़े गये; गोली से हत्या।
महत्त्व: जनजातीय‑राष्ट्रवादी समन्वय, गांधीजी ने ‘बंगाल का शिवाजी’ कहा; 1924 में मड्रेस जंगल ट्राइब्स एक्ट पारित।
8 मुंडा उलगुलान (1899‑1900)
उलगुलान = ‘महाविप्लव’।
क्षेत्र: राँची‑खूँटी‑चाईबासा बेल्ट।
नेता: धरती आबा बिरसा मुंडा।
आधारशिला:
बिरसा को ‘धरती अब्बा’ (धरती‑पिता) की उपाधि; जनजातीय‑धार्मिक पुनर्जागरण, ‘बिरसा धर्म’ (स्नान, स्वछता, मांसाहार‑निवारण)।
‘बीजराज का राज’—जनता का राज।
कारक: लगान वृद्धि; ज़मींदार‑दिक्कू हिंसा; जंगलों के अफ़सरशाही प्रतिबन्ध।
घटनाक्रम: 24 दिसम्बर 1899 को ‘डुम्बारी‑बुरू’ पर सभा; पुलिस थानों पर तीखा हमला; 1900 की गर्मियों तक फैलाव।
दमन: 3 फरवरी 1900—बिरसा गिरफ़्तार; 9 जून 1900 जेल में रहस्यमयी मौत (कथित हैज़ा)।
परिणाम: छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (CNTA) 1908—मुंडारी खुटकटी व्यवस्था की आंशिक पुनर्बहाली; बिरसा स्वतंत्रता‑नायकों के अग्रगण्य।
9 टाना भगत आन्दोलन (1914‑1920)
जनजाति: उरांव (कुड़ुख़) मुख्यतः; कुछ मुंडा‑खरिया भी।
नेता: जटरा भागत—श्वेत वस्त्रधारी, गाँधीवादी प्रतीक।
विशेषता: नशामुक्त समाज, लगान‑बहिष्कार, चरखा‑स्वदेशी; बाद में असहयोग से जुड़ाव।
दमन: 1915‑16 में पुलिस दमन; किन्तु 1920 में गांधी‑कांग्रेस के राष्ट्रीय मंच पर।
महत्त्व: अहिंसक आदिवासी आयोजन, समाज‑सुधार तथा स्वराज की एकसूत्रता।
10 खासी‑जयंतिया विद्रोह (1829‑1833)
क्षेत्र: मेघालय के पूर्वी‑पश्चिमी खासी पहाड़।
नेता: तिरोत सिंह (खासी राजा), बरीलिंग पैसा।
कारण: सिलहट‑गौहाटी सड़क परियोजना—खासी भूमि अधिग्रहण, यातायात कर, जबरिया बेगार।
घटनाएँ: तिरोत सिंह ने अंग्रेज़ इंजीनियर दस्ते पर हमला; 1833 में धोखे से गिरफ्तारी।
परिणाम: 25 दिसम्बर 1835—तिरोत सिंह की मृत्यु; खासी हिल्स ब्रिटिश अधीन, पर खासी स्वायत्त राजशाही 1862 तक बनी रही।
11 रामोसी (भील उपसमूह) विद्रोह (1822‑1829)
क्षेत्र: पश्चिमी महाराष्ट्र (सतारा, कोल्हापुर)।
नेता: छप्पू भंडारी तथा वासुदेव बालवंतराव फड़के (बाद का चरण)।
कारण: पेशवाओं के पतन के बाद ठाकुरों का कर‑दमन; निजी सुरक्षा कार्य छिनना।
रणनीति: छापामार पद्धति; ब्रिटिश कोचों पर हमला, करखानों की लूट।
परिणाम: 1829 के बाद भी इक्का‑दुक्का टोलियाँ सक्रिय; 1879 फड़के पकड़े गये; 1883 मैंडले जेल मृत्यु।
12 अन्य उल्लेखनीय जनजातीय प्रतिरोध
क्रमविद्रोहअवधिकक्षेत्रप्रमुख तथ्य
(I) माल पहाड़िया प्रतिरोध1772‑1800राजमहल पहाड़ी (झारखंड)कंपनी शासन के विरुद्ध निरन्तर छापामार; कैप्टन ब्रुक को आदिवासी मान्यता।
(II) गोंड‑परमार विद्रोह1842‑55मंडला‑बालाघाटराजा शंकरशाह‑रघुनाथशाह; 1857 से पूर्व राष्ट्रवादी चेतना।
(III) कूका (नूलखेडी) आन्दोलन1872‑73पंजाब‑हिमाचलनमधारी सिख + पहाड़ी गुज्जर; गुलाब सिंह, रामसिंह—धार्मिक‑सामाजिक विद्रोह।
(IV) भील जंगल सत्याग्रह1910गुजरात दक्षिणवन कानून के विरुद्ध वन‑उत्पाद दोहन सत्याग्रह; गोविंद गुरू की प्रेरणा।
(V) दफला‑मिरी संघर्ष1872‑83अरुणाचलसीमा नीति; डफला जनजाति ने अंग्रेज़ सर्वे दल पर हमला।
विद्रोहों का सामूहिक मूल्यांकन
1 सामाजिक‑आर्थिक प्रभाव
भूमिकर‑व्यवस्था व वन‑कानूनों में ढील; कई स्थानों पर अधिनियम बने—जैसे CNTA (1908), SPTA (1949), मद्रास ट्राइब्स एक्ट (1924)।
साहूकारी नियंत्रण पर आंशिक अंकुश; को‑ऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटी की पहल।
2 राजनीतिक‑राष्ट्रवादी योगदान
1857 से पूर्व जनजातीय विद्रोहों ने सशस्त्र प्रतिरोध की परम्परा स्थापित की, जो आगे चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रेरणा बने।
बिरसा, सिद्धू‑कान्हू, अल्लूरी राजू आदि शहीद लोकनायक के समान पूजे गये; कांग्रेस के असहयोग‑स्वराज अभियानों में आदिवासी भागीदारी बढ़ी।
3 सांस्कृतिक‑पहचान पुनर्जीवन
बिरसा धर्म, टाना भगत सुधार, खोंड‑मेरिया प्रथा उन्मूलन—इन सब ने आदिवासी समाज को आन्तरिक पुनर्गठन का अवसर दिया।
‘दिक्कू बनाम मूलवासी’ विमर्श ने समकालीन Adivasi Rights Movement की नींव रखी।
4 अंग्रेज़ी नीति‑परिवर्तन
Scheduled District Act, 1874; Excluded & Partially Excluded Areas 1935 Act—आदिवासी इलाक़ों पर विशेष प्रशासनिक उपाय लागू हुए।
सीमावर्ती पहाड़ी क्षेत्रों की ‘Frontier Policy’ बदली; सैन्य अड्डों के बजाय स्थानीय मुखिया से संधि को प्राथमिकता मिली।
निष्कर्ष
जीवट, स्वायत्तता‑प्रिय और प्रकृति‑केन्द्रीय जीवनमूल्यों से ओत‑प्रोत भारत की जनजातियाँ अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लगातार डेढ़‑दो शताब्दियों तक लड़ीं। ये विद्रोह अक्सर स्थानीय, असंगठित और क्षेत्रीय सीमाओं में बँधे रहे; फलतः व्यापक राजनीतिक एकता का अभाव रहा। फिर भी इन आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन की नींव हिला कर भारतीय राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया।
संथालों की हूल ने मज़दूर‑किसान संघर्ष में नयी दिशा दी; बिरसा का उलगुलान सांस्कृतिक पुनर्निर्माण का प्रतीक बना। अल्लूरी राजू का गुडेम सत्याग्रह राष्ट्रीय आंदोलन से सीधा जुड़ कर ‘जनजातीय + राष्ट्रवादी’ समन्वय का उदाहरण प्रस्तुत करता है
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