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                   भारतीय नाट्यकला

                                                 परिचय:-

 ऐसा माना जाता कि सीताबेंगरा एवं जोगीमारा गुफाओं की खुदाई से प्राप्त खंडहर विश्व की प्राचीनतम रंगभूमियों ( देवदासी प्रथा ) का प्रतिनिधित्व करते हैं । भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में नाट्यकला की लम्बी परम्परा को उजागर करने वाले दृष्टांतों में से यह केवल एक दृष्टांत है । ' भरत मुनि ' के नाट्य शास्त्र के अनुसार , ब्रह्मा जी ने देवताओं के मनोरंजन के लिए चारों वेदों के तत्वों को मिला कर ' नाट्य - वेद ' की रचना की । स्वयं नाट्य शास्त्र 200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच अवधि में लिखा गया था , तथा यह नाट्यकला पर रचित पहला औपचारिक ग्रंथ है । इसमें , एकांकी नाटकों से लेकर दस अंक के नाटकों तक दस प्रकार के नाटकों का वर्णन किया गया है तथा इसमें शास्त्रीय संस्कृत साहित्य के सभी पक्षों को समाहित किया गया है ।

भारतीय नाट्यकला, शास्त्रीय संस्कृत नाट्यकला and Indian drama


                                  शास्त्रीय संस्कृत नाट्यकला

 भारत में नाट्यकला का आरम्भ एक कथात्मक कला विधा के रूप में हुआ , जिसमें संगीत , नृत्य तथा अभिनय के मिश्रण को सम्मिलित कर लिया गया । अनुवाचन , नृत्य तथा संगीत नाट्यकला के अभिन्न अंग थे । संस्कृत शब्द ' नाटक ' का मूल है - ' नट ' शब्द जिसका वास्तविक अर्थ होता है - नर्तक । नाटक का वर्णन करने के लिए प्रयुक्त अन्य शब्द थे ' रूपक ' , ' दृश्यकाव्य ' तथा ' प्रेक्षाकाव्य । प्राचीन भारत में , नाटक मूलतः दो प्रकार के होते थे :

  ☆ लोकधर्मीः ये रोजमर्रा के जीवन का वास्तविक चित्रण हुआ करते थे । 

  ☆ नाट्यधर्मीः ये अत्यधिक शैलीगत आख्यानों वाले मुखर तथा प्रतीकात्मक पारम्परिक नाटक हुआ करते थे ।

         विख्यात दार्शनिक ‘ अश्वघोष ' द्वारा रचित ' सारिपुत्रप्रकरण ' को शास्त्रीय संस्कृत नाट्य रचना का प्रथम उदाहरण माना जाता है । यह नौ अंकों का नाटक था । उस समय के एक अन्य नाटककार थे- भास , जिन्होंने तीसरी चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास के काल में ' तेरह ' नाटक लिखे । शूद्रक अपने नाटक मृच्छकटिकम् में द्वंद तत्व का समावेश करने वाले प्रथम रचनाकार हो नायक तथा नायिका के अतिरिक्त , इस नाटक में प्रथम बार एक खलनायक को भी सम्मिलित किया गया । संस्कृत नाटककारों में कालिदास कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय हैं । उनकी तीन कृतियां – मालविकाग्निमित्रम् , विक्रमोर्वशीयम् तथा अभिज्ञान शाकुंतलम- शास्त्रीय संस्कृत नाटक के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में से हैं । लालसा तथा कर्तव्य के बीच शाश्वत द्वंद्व के चित्रण में कालिदास अद्वितीय थे । नाटकों के कुछ अन्य उदाहरणों में भवभूति द्वारा रचित उत्तररामचरितम् तथा महावीरचरित्र , विशाखदत्त द्वारा रचित ' मुद्राराक्षस ' तथा हर्षवर्धन द्वारा रचित ' रत्नावली ' उल्लेखनीय हैं । 

        शास्त्रीय संस्कृत परम्परा में , नाटकों को दस प्रकारों - अंक , भान , दिमा , इथान्य , नाटक , प्रहसन , प्रकरण , स्वकर्ण , वीथी और व्यायोग में वर्गीकृत किया गया था । नाट्यशास्त्र में इनमें से केवल दो नाटक तथा प्रकरण - का वर्णन है । शास्त्रीय संस्कृत नाटक कुछ अनम्य परिपाटियों से बंधे हुए थे-

  ☆ सामान्यतः चार से सात अंकों वाले नाटक होते थे । 

  ☆ उनके अंत सदैव सुखद होते थे ( यूनानी त्रासदी के विपरीत ) , जहाँ नायक जीतता है या मरता नहीं है । दुःखांत घटना का चित्रण कदाचित ही होता था । 

  ☆ नायक सदैव पुरुष ही होता था , जो अंततः अपनी इच्छाओं को पूरा कर पाने में सफल होता था ।

  ☆ नाटकों के सुपरिभाषित आरम्भ , आरोहण , विकास , विराम तथा निष्कर्ष होते थे ।

                संस्कृत नाटक अधिकतर आनुष्ठानिक आरोहण का अनुसरण करते थे , जो निम्नलिखित हैं : 

  ☆ नाटक का आरम्भ पूर्व - राग नामक बहुत - सी पूर्व नाटकीय रीतियों से होता था , जिन्हें अधिकतर परदे के पीछे निष्पादित किया जाता था ।   

  ☆ तत्पश्चात् , सूत्रधार जो मंच प्रबन्धक तथा निदेशक होता था , अपने सहायकों के साथ मंच पर आता था । श्वेत वस्त्रों से सुसज्जित हो वह देवता की पूजा करता तथा उनका आशीर्वाद मांगता था ।

  ☆ उसके बाद , नायिका को बुलाया जाता तथा सूत्रधार के द्वारा नाटक के समय तथा स्थान की घोषणा की जाती थी । वह नाटककार का संक्षिप्त परिचय भी प्रस्तुत करता था । 

  ☆ भरत के अनुसार , नाट्यशाला लगभग 400 लोगों के बैठने की जगह होती थी । 

  ☆ मंच दो मंजिल के होते थे । ऊपरी मंजिल आकाशीय या दिव्य मंडल के लिए प्रयुक्त होती थी , जबकि निचली मंजिल पार्थिव क्षेत्र या मंडल के लिए प्रयुक्त होती थी ।

  ☆ नाटक के प्रभाव को बढ़ाने के लिए परदों का प्रयोग होता था यद्यपि मुखौटों का प्रयोग नहीं किया जाता . था । 

            संस्कृत नाटक में पात्र महत्त्वपूर्ण होते हैं । व्यापक रूप में उन्हें तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है , जो इस प्रकार हैं नायक ( मुख्य पुरुष पात्र ( हीरो ) या प्रधान पुरुष ) , नायिका ( हीरोइन ) और विदूषक । 

  ☆ नायक ( प्रधान पुरुष पात्र ) . की भूमिका पुरुषों द्वारा निभाई जाती थी , जिनके विभिन्न व्यक्तित्व हो सकते थे . जैसे - ललित ( दयालु ) , शांत ( निश्चल और शांतचित्त ) उद्धृत ( उत्तेजित या मगरूर ) आदि । नायक , प्रतिनायक ( प्रतिपक्षी ) भी हो सकते हैं जैसे रावण , दुर्योधन आदि । 

  ☆ नायिका ( प्रधान महिला पात्र ) , की भूमिका महिलाओं द्वारा निभाई जाती थी , जिनमें रानी , महिला मित्र , गणिका ( वैश्या ) , दिव्य स्त्री ( दिव्या ) हो सकती थी । 

   ☆ विदूषक ( मस्खरा ) , हास्य चरित्र नाटकों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । वह कुलीन और सहृदय , प्रायः नायक का मित्र होता है । वह व्यंग्य के माध्यम से प्रचलित सामजिक मानदंडों पर प्रश्न करता है । परम्परागत रूप से वह प्राकृत में वार्तालाप करता है , जबकि अन्य पात्र संस्कृत में करते हैं । इस प्रकार , संस्कृत नाटक मनोरंजन और धार्मिक परंपराओं का एक मेल बन गया ।

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